सशक्तिकरण का वास्तविक अर्थ यह है कि महिलाएं अपने निर्णय स्वयं लेने में सक्षम हों तथा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मामलों में उनकी पूर्ण सहभागिता सुनिश्चित हो। लेकिन यदि हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य पर नज़र डालें, तो स्थिति संतोषजनक नहीं दिखाई देती। संसद से लेकर ग्राम पंचायत तक, महिला प्रतिनिधित्व केवल एक औपचारिक आँकड़ा बनकर रह गया है, जो हमें यह सोचने पर विवश करता है कि क्या वास्तव में महिलाओं की स्थिति में कोई ठोस सुधार हुआ है?
आज के दौर में जब पुरुषों और महिलाओं के कार्य घंटे लगभग समान हो गए हैं, तब भी महिलाओं का कार्यभार पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक है। इसका मुख्य कारण यह है कि सामाजिक परंपराओं और मान्यताओं के कारण उन्हें न केवल आर्थिक योगदान देना होता है, बल्कि घरेलू कार्यों और बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी भी निभानी पड़ती है। ऐसे में महिला सशक्तिकरण सिर्फ एक आदर्श बनकर रह जाता है।
बौद्धिक सशक्तिकरण के क्षेत्र में भी महिलाएं अभी पिछड़ी हुई हैं। हालाँकि, हमारे संविधान में ऐसे कई प्रावधान हैं जो महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सरकार को निर्देश देते हैं। जैसे कि नीति निदेशक तत्वों का अनुच्छेद 39(d), जो पुरुषों और महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन की बात करता है। समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 भी इसी सिद्धांत को मजबूती देता है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि आज भी महिलाएं स्वतंत्र रूप से निर्णय नहीं ले पा रही हैं। कानूनी जानकारी का अभाव भी उनकी निर्भरता और असहायता को बढ़ाता है।
सशक्तिकरण केवल एक व्यक्ति की जागरूकता से नहीं आता, बल्कि यह सामूहिक चेतना और प्रयास से ही फलीभूत होता है। दुर्भाग्यवश, आज भी महिलाओं के सशक्तिकरण की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है — सूचना का अभाव और सामाजिक रूढ़ियाँ, जो उन्हें आगे बढ़ने से रोकती हैं।
हाल ही में आई फिल्मों — ‘पंचायत’ और ‘लापता लेडीज’ — ने इन मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। ‘पंचायत’ में यह दिखाया गया कि सरकार भले ही महिला सशक्तिकरण के प्रयास कर रही हो, लेकिन पुरुष प्रधान समाज के सामने वह प्रयास कितने कमजोर पड़ जाते हैं। वहीं ‘लापता लेडीज’ में यह दिखाया गया कि किस प्रकार एक पुरुषवादी समाज महिलाओं की अज्ञानता को महानता का आवरण पहनाकर उन्हें मूर्ख बनाता है।
ऐसे में हमारा कर्तव्य है कि —
🔹 यदि हम महिला हैं, तो स्वयं सशक्त बनें।
🔹 और यदि हम पुरुष हैं, तो अपने घर की महिलाओं और बेटियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रेरित करें।
हमारा छोटा-सा प्रयास भी समाज में बड़े बदलाव की शुरुआत बन सकता है। जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा था:
"अपने देश की महिलाओं को पहले शिक्षित करो और फिर उन्हें अपने हाल पर छोड़ दो; वे खुद ही बता देंगी कि उनके लिए क्या सुधार आवश्यक हैं।"
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