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क्योंकि चलते रहना ही जिंदगी का नाम है।

"चलते रहो कदम यूँ ही मंज़िल की तलाश में,हर मुश्किल भी आसान होगी एक आस में।"

चलते सफर में अक्सर ख्याल आता है कि क्या इन्हीं झंझावतों के लिए यह सफर शुरू किया था? हमने तो यह यात्रा बुलंदियों के लिए शुरू की थी, लेकिन रास्तों की सच्चाइयों से परिचय तो समय ही करवाता है। और यह समय हमें यह भी सिखाता है कि वे हजार चीजें, जिन्हें हमने अपनी यात्रा की शुरुआत में महत्व नहीं दिया था, पूरी यात्रा के लिए कितनी आवश्यक हैं।

लेकिन फिर हमारा अंतर्मन कह उठता है कि, "चलो, कौन सीखकर आया है यहां? मां के पेट से सबने कोरे पन्ने पर अपनी नई कहानी लिखी है।"

कहानी सबकी अलग-अलग है, यात्रा भी सबकी अलग-अलग। लेकिन यदि कुछ समान है तो वह यह कि हम अपने किरदार को कितना समय देते हैं, उसे समय के साथ कैसे ढालते हैं, और कैसे समय की सीमाओं को लांघने का प्रयास कैसे करते हैं।

समय के साथ ढलने और चलने से जो मनोवृत्तियां विकसित होती हैं, वे जीवन की नई परिभाषा गढ़ती हैं। ये मनोवृत्तियां न केवल जीने की नई आशा देती हैं, बल्कि जीवन के उन पहलुओं के प्रति भी एक नया दृष्टिकोण प्रदान करती हैं, जिनसे हम अब तक अनजान थे।

इन्हीं विचारों के साथ जावेद अख्तर साहब की खूबसूरत पंक्तियां याद आती हैं:

"जो अपनी आँखों में हैरानियाँ लेकर चल रहे हो तो ज़िंदा हो तुम।दिलों में अपनी बेताबियाँ लेकर चल रहे हो तो ज़िंदा हो तुम।"

असल में, यदि हम गौर से देखें तो यहां हर किरदार में एक कहानी छुपी है। कुछ कहानियां दुनिया के सामने छप चुकी हैं, और कई कहानियां अभी भी समय के साथ अपने रंग दिखाने की प्रतिक्षा कर रही हैं। समय के इस सन्नाटे से हमें रूबरू होना चाहिए, क्योंकि यही वह प्रक्रिया है जो हमारे व्यक्तित्व को मांजती है और साधती है।

इसलिए, हमें हमेशा अपनी यात्रा पर विश्वास रखना चाहिए और समय के साथ बहते रहना चाहिए। क्योंकि चलते रहना ही जिंदगी का नाम है।

"गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में,वो

 तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले।"

– मिर्ज़ा ग़ालिब


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